मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

बदलती परिस्थितियां

परिवार और समाज में नारियों का स्थान और उनके अन्तरंग और बहिर्रंग व्यक्तित्व की दृष्टी से यदि हम विश्व का इतिहास देखें, तो विभिन् कालों में नारियों की बदलती स्थितियों का हमें सहज ही पता चल जाएगा। हमें ऐसा सुनने को मिलता है की बहुत प्राचीन काल में नारी प्रधान परिवार हुआ करते थे। ऐसे परिवारों से यूक्त समाज मात्र सत्तात्मक समाज कहलाता था। आज भी केरल में और पूर्वोतर राज्यों में ऐसे परिवार मिल जाते हैं। फिर क्रमश: ऐसा युग आया जब परिवार में कार्य शेत्र का स्पष्ट: बंटवारा हो गया। नारियों को घर के समस्त कार्य सौँप दिए गए और पुरूष ने अपना कार्य-शेत्र बाहर चुन लिया। परिणाम यह हुआ की धीरे-धीरे पुरुषों का महत्त्व बढ़ने लगा और स्त्रियाँ सिर्फ़ घर की शोभा मात्र रह गयी। आधिकारों की दृष्टि से नारियों के पिचाद
जाने का प्रधान कारन शायद यही रहा होगा। आज भी हम पाते हैं की जिन् स्त्रियों का कार्य शेत्र सिर्फ़ घर तक सीमित है, वे अपेक्षाकृत परतंत्र है, और जो स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में घर से बाहर अपना कार्य शेत्र ढूँढ लेती है, वे कहीं अधिक स्वतंत्र हो जाती हैं अथवा होने की शमता पैदा कर लेती हैं। नारीओं की स्थिति में हेरफेर का यह कारन इसलिए भी उपयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि कोई दूसरा कारन इतना महत्वपूर्ण नज़र नहीं आता। सालों से महिलाओं की बिगड़ती स्थिति और अन्याय से बचाव के लिए तमाम महिला संस्थ्यें सामने आयी हैं पर वे पुरा कार्य नहीं कर पायीं हैं। स्त्री का शारीरिक, मानसिक, और मनोवैज्ञानिक शोषण से बचाव हो, इसके लिए ज़रूरी है की पूरा परिवार अपनी सोच में परिवर्तन करे, या परोख्स रूप से कहें, तो समाज की सोच में ही परिवार्त्न हो। आंकडों के मुताबिक, उत्तेर्प्रदेश महिलाओं के उत्पीडन में सबसे आगे है। नेशनल फॅमिली हैल्थ के हाल के आंकड़े बताते हैं की तकरीबन पचास प्रतिशत पुरूष महिलाओं को उत्पीडित करते है। दहीज के लिए टांग करना, मरना, लिंग भेध्भाव भी वहां ज़्यादा है, पर यह सामान्तया पुरे उत्तर भारत में है। शैक्षिक, आर्थिक, व् सामाजिक विकास में भी उनके साथ भेदभाव ज़ाहिर तौर पर है। प्रतिदिन के उत्पीडन से महिलायें एकदम से नहीं मरती, तिल-तिल कर मरती है, और हर तरह से पंगु बन जाती हैं।

आख़िर इस समस्या का कोई निदान है क्या ? क्या महिला सस्थाएं न्यायालयों में महिलाओं को न्याय दिला कर इन समस्याओं का निदान कर सकती है ?

मैंने अपने कुछ मित्रों से कुछ सवाल पूछे.उनके जवाब का लब्बो -लुबाव था "इस्त्रियों का आत्मनिर्भेर होना मुख्य वजह है पारिवारिक कलह की । जो दायीत्व समाज ने स्त्री और पुरूष के लिए बाँट दिए गए हैं , उसका निर्वहन न कर के पुरूष और स्त्री दोनों पुरूषओचित हो रहे हैं । वैसे भी , पुरूष का स्त्रियन होना सम्भव नहीं ।"

मुझे लगा जब तक पुरूष अहंकार बीच में आता रहेगा , परिवारों में बिखराव आता रहेगा एक और महिला मनोव्य्ज्ञानिक रूप से पंगु होती रहेगी ।

आज ज़रूरत है ऐसी संस्थाओं की जो स्त्री ही नही , पुरुषों के मन की व्यथा भी सुनें और उन्हें परामर्श दे की किस तरह घर में महिला को स्नेह व् इज्ज़त देते हुए मददगार पति , भाई , पिता की भूमिका निभाएं । साथ ही , इस पीढी की परवरिश ऐसे ढंग से हो जहाँ बेटे -बेटियों में भेदभाव न हो और दोनों में समान मानसिकता डालते हुए घर -बाहर के कार्य सिखाये जायें । संभवत: तभी स्थितियों में बदलाव होगा और देश का भविष्य उज्जवल होगा , और यही हमारा समाज के लिए योगदान होगा ।

विभा तैलंग ९.१०.2008